गुप्त काल
इस कॉल की जानकारी निम्न स्रोतों के आधार पर होती है।
साहित्यिक स्रोत
- पुस्तक – लेखक
- देवीचंद्रगुप्तम – विशाप्य दत्त
- मृच्छकटिकम् – शुद्रक
- कामसूत्र – वास्त्यायन
अभिज्ञान शाकुंतलम्, विक्रमोंवशीर्य, रघुवंशम, कुमारसंभवम्, मालविकाग्निमित्रम् – कालिदास
पुरातात्विक स्रोत
- प्रयाग प्रशस्ति – हरिषेण
यह समुद्रगुप्त से संबंधित है।
- महरौली का लौह स्तंभ
चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) से संबंधित है।
- भीतरी अभिलेख (गाजीपुर उत्तर प्रदेश) और जूनागढ़ अभिलेख
यह दोनों समुद्रगुप्त से संबंधित हैं।
विदेशी विवरण
- फाह्यान
प्रथम चीनी यात्री था जो कि चंद्रगुप्त द्वितीय के समय काल में भारत आया था। इसने फो-को-सी नामक पुस्तक लिखी थी।
- गुप्त लोग कुषाणों के सामंत थे। श्री गुप्त को गुप्तों का आदि पुरुष संस्थापक कहा जाता है।
चंद्रगुप्त प्रथम (319 ईसवी)
इसे गुप्त काल का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। यहीं से गुप्त संवत की शुरुआत भी हुई थी।
उपाधि – महाराजाधिराज
विवाह – लिच्छवि की राजकुमारी कुमार देवी से।
- कुमार देवी ने ही सारनाथ में जिनचक्र विहार की स्थापना की थी।
समुद्रगुप्त (335 से 375 ईसवी)
सर्वाधिक प्रतापी व साम्राज्यवादी राजा था।
- उपाधि –
- लिच्छवी दौहित्र ( दौहित्र = नाती)
- कविराज (वीणा वादन करते थे)
- चंद्रप्रकाश (पिता चंद्रगुप्त)
- धर्म का प्राचीर (हिंदू धर्म का प्रचार)
- विंसेंट स्मिथ ने इसे भारत का नेपोलियन कहा है।
- विजय
- सभी जीत को पांच चरणों में हासिल किया था इन सभी का विवरण प्रयाग प्रशस्ति में मिलता है।
- अश्वमेध यज्ञ प्रयाग प्रशस्ति लिखने के बाद किया गया था। जिस वजह से इसका जिक्र प्रयाग प्रशस्ति में नहीं मिल पाया है।
- अश्वमेध यज्ञ के बाद समुद्रगुप्त ने तीन नई उपाधि धारण की थी।
अश्वमेध पराक्रम, व्याघ्र पराक्रम और अप्रतिरथ।
राम गुप्त (375 से 380 ईसवी)
- अनेक साहित्यिक स्रोतों में इसका नाम और कुछ तांबे के सिक्के भी मिलते हैं लेकिन राम गुप्त के बाद हुए राजा के अभिलेखों में इसका जिक्र नहीं है।
ध्रुवस्वामिनी जयशंकर प्रसाद की पुस्तक के अनुसार
- राम गुप्त चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का बड़ा भाई था।
- इसकी पत्नी “ध्रुवस्वामिनी” का शक राजा ‘रूद्र सिंह तृतीय’ द्वारा अपहरण कर लिया गया था।
- जिसके बाद चंद्रगुप्त द्वितीय ने शक राजा को उसके दरबार में हत्या कर ध्रुवस्वामिनी को बचाकर लाया।
चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (380 से 412 ईसवी)
- उपाधि
- विक्रमादित्य
- परम भागवत (विष्णु के उपासक)
- शकारि (शक + अरि)
- देवराज
- देवभूमि
- सिंह विक्रम
- इनका विवाह नागवंश की राजकुमारी कुबेरनाग से हुआ था जिनसे एक पुत्री प्रभावती हुई थी।
- प्रभावती का विवाह वाकाटक वंश के राजा रूद्र सेन द्वितीय से हुआ था।
- जिसके बाद गुप्त वंश और वाकाटक वंश ने मिलकर शकों को हराया और इसके बाद विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।
इसी के बाद चंद्रगुप्त ने चांदी के सिक्के भी चलवाए।
- दरबारी
- कालिदास
- धनवंतरी (चिकित्सक)
- अमर सिंह
- भरुचि
- वाराह मिहिर (गणितज्ञ, खगोलशास्त्री)
चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने कालिदास को वाकाटक दरबार में दूत बना कर भेजा था। वहां पर कालिदास ने मेघदूतम की रचना की थी।
- इस काल के सर्वाधिक सिक्के धनुर्धारी प्रकार के थे।
- उज्जैन चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की दूसरी राजधानी थी।
कुमारगुप्त (415 से 454 ईसवी)
उपाधि – सकरादित्य, महेंद्रादित्य
व्हेन सांग ने अपनी पुस्तक में बताया है कि नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना सकरादित्य ने ही की थी।
स्कंद गुप्त (454 से 467 ईसवी)
- उपाधि
- करमादित्य
- क्षितिप्रशतपति
- शकोपम
- अभिलेख
- जूनागढ़ या गिरनार का अभिलेख – पराजय की जानकारी
- भीतरी अभिलेख गाजीपुर – हूणों के आक्रमण की जानकारी
पुरुगुप्त, कुमारगुप्त द्वितीय, बुध गुप्त, नरसिंह गुप्त
भानु गुप्त
एरण अभिलेख मध्य प्रदेश के रायसेन जिले से प्राप्त हुआ है। 510 ईसवी में सर्वप्रथम इसी अभिलेख से सती प्रथा की जानकारी मिलती है।
अर्थव्यवस्था
सर्वाधिक स्वर्ण सिक्के जारी हुए लेकिन यह मिलावटी थे इन्हें दिनार कहा जाता था।
व्यापार
- दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ इस काल में सर्वाधिक व्यापार संबंधित थे। जिसमें जावा, सुमात्रा, मलेशिया मलय, कंबोडिया प्रमुख हैं।
- मौर्योत्तर काल में रोमन साम्राज्य और मौर्य काल में पश्चिम एशियाई यूनानी देश के साथ भी व्यापार थे।
कला साहित्य
कला साहित्य की दृष्टि से इस काल को स्वर्ण काल कहा जाता है।
भारत में सर्वप्रथम हिंदू मंदिरों का निर्माण भी इसी काल में हुआ था।
- प्राचीनतम मंदिर
- देवगढ़ का दशावतार मंदिर (ललितपुर झांसी में)
- भीतरगांव का मंदिर
- इसके अलावा सारनाथ में भी मूर्तिकला का विकास हुआ।
इस काल की राजभाषा संस्कृत थी। रामायण महाभारत और पुराणों का अंतिम रूप से संकलन भी इसी काल में हुआ था।