सूफी व भक्ति आंदोलन : परिचय

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 तुर्क-अफगानी भरत के धार्मिक जीवन की प्रमुसख विशेषता भक्ति-आंदोलन के उदय है। इस काल में अनेक संतों एवं सूफियों का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्होंने धर्म को आडंबर विहीन करने एवं ईश्वर के प्रति प्रेम व भक्ति जागृत करने का कार्य किया।

इस युग के संतों ने हिंदुओं और मुस्लिमों के मध्य समन्वय, एकता स्थापित करने का प्रयास व सामाजिक-धार्मिक तनाव को कम करने की चेष्टा के लिए कार्य किए थे जो अपने प्रयासों में वे सफल भी हुए।

भक्ति आंदोलन का विकास दो चरणों में हुआ। पहला चरण 7 वीं से 13वीं शताब्दी तक चला जब दक्षिण भारत में इसका आरंभ हुआ। दूसरा चरण 13 वीं से 16 वीं शताब्दी के मध्य विकसित हुआ। इस आंदोलन का संबंध मुख्य रूप से हिन्दू धर्म के साथ था।

उत्तरी भारत में यह आंदोलन अपने दूसरे चरण में इस्लाम के संपर्क में आया और इसकी चुनौतियों ओ स्वीकार करतय हुआ इससे प्रभावित, उत्तेजित और आंदोलित हुआ।

सूफी संप्रदाय

सल्तनत-काल में इस्लाम धर्म में जो सबसे महत्वपूर्ण घटना घाटी, वह भी सूफ़ीवड (सूफी-संप्रदाय) के उदय। सूफी शब्द की व्युत्पत्ति विवादास्पद है। आरंभ में अरब-प्रदेश में सूफी उन्हें कहा गया, जो सफ (ऊनी  वस्त्र) पहनते थे। बाद में शुद्ध एवं पवित्र आचरण एवं विचार वाले (सफा) सूफी कहलाये। कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि मदीना में मुहम्मद साहब द्वारा बनवाई गई मस्जिद के बाहर सफा  (मक्का की एक पहाड़ी) पर जिन लोगों ने शरण ली एवं अल्लाह की आराधना में मगन रहे, उन्हें ही सूफी कहा जाता है।

सूफी शब्द का उत्पत्ति उननी भाषा एक सोफिया शब्द से हुआ जिसका अर्थ ज्ञान है। सूफी वाद का विकास ईरान में हुआ। 13-14 वीं शताब्दी तक भारत में इस्लाम धर्म के साथ ही सूफी-संप्रदाय भी व्यापक तौर पर स्थापित हो चुका था।

सूफी दर्शन

सूफीवाद दार्शनिक सिद्धांत पर आधारित था। सुफईवाद ने इस्लामी कट्टरपन को त्या दिया एवं धार्मिक रहस्यवाद को स्वीकार किया। सूफी इस्लाम-धर्म के कर्मकांडों एवं कट्टरपंथी विचारों के विरोधी थे, फिर भी इस्लाम-धर्म एवं कुरान की महत्ता को वे स्वीकार करते थे। सूफी संत एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उनका मानना था कि ईश्वर एक हैं सभी कुछ ईश्वर में है, उनके बाहर कुछ नहीं है और सभी कुछ का त्याग कर प्रेम के द्वारा ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।

वे ईश्वर को प्रियतमा के समान मानते थे जिनके लिए प्रेमी अपना सब कुछ न्योछावर कर देता था। प्रियतमा को आकृष्ट करने के लिए सूफियों ने नाच-गाँ और कव्वाली पर भी बल  दिया। त्याग, प्रेम, भक्ति, उपासना और अहिंसा का उनके जवान में प्रमुख स्थान था।

सूफी मत में पीर व मुर्शीद

सूफी संतों के केंद्र में विभिन्न खनकाह थे इनके केंद्र बिन्दु पीर या मुरशीद थे। पीरों को अलौकिक शक्ति का प्रतीक माना जाता था। ऐसा माना जाता था कि पीर खुद के निकट रहने से सब कुछ सहजता से प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए बड़ी संख्या में मुरशीद खांकहों में उपस्थित होते थे।

कव्वाली और कीर्तन खांकहों की दिनचर्या में सम्मिलित हो गए जहां बड़ी संख्या में हिन्दू-मुस्लिम समान रूप से एकत्रित होते थे।

पीर ही विभिन्न सूफी सिलसिलों के संस्थापक होते थे तथा इनके उत्तराधिकारी नियुक्त किए जाते थे। नए शिष्यों की भर्ती करवाने का कार्य भी पीर ही करते थे। सूफी सिलसिलों की एक विशेषता यह थी कि उनमें आपसी प्रतिद्वंद्विता और वैमनस्य की भावना नहीं थी। वे परस्पर आदर और समझौते की नीति अनुसरण करते थे।

सूफी संप्रदाय (सिलसिले)

  1. चिश्ती सिलसिला
  2. सुहारवर्दी सिलसिला
  3. कदारी सिलसिला
  4. नक्शबंदी सिलसिला

भारत में सूफी मत

भारत में सूफियों का आगमन महमूद गजनवी के आगमन (1000 ईस्वी) के साथ होता है। भारत आने वाले प्रथम संत शेख इस्माईल थे जो लाहौर आए। इनके उत्तराधिकारी शेख अली बिन उस्मान अल हुजवीरी थे जो दाता गंज बख्श के नाम से विख्यात हैं।

11 वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में वे लाहौर आकर बसे । इनका मकबरा लाहौर में है। इन्होंने सूफी मत से संबंधित प्रथम प्रसिद्ध रचना भारत में लिखी जो कश्फुल महजूब के नाम से प्रसिद्ध है।

इसी समय के एक अन्य संत सय्यद अहमद सुल्तान शखी सरवर  थे जो लाखदाता के नाम से प्रसिद्ध थे। इनका नवास स्थान मुल्तान के निकट शाहकोट में था।

एक अन्य सूफी अब्दुल करीम चिली को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक इन्स-ए-कामिल थी। 12 वीं शताब्दी में प्रसिद्ध में सूफी फरीदुद्दीन अत्तार भारत आए जिन्होंने मालिक-उत-तैर तथा जतकिरातूल औलिया नामक ग्रंथों की रचना की थी।

12 वीं शताब्दी के अंत में मुहम्मद गोरी के अभियान के समय सूफियों का भारत में प्रसार प्रारंभ हुआ। ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती 1192 ईस्वी में शिहाबुद्दीन गोरी की सेना के साथ भारत आए तथा भारत में चिश्ती परंपरा की नींव रखी थी।

भारत की प्रसिद्ध सूफी दरगाहें

बाबा ऋषि की दरगाह

श्री नगर (जम्मू कश्मीर)

अजमेर शरीफ दरगाह

अजमेर, राजस्थान

बिहार शरीफ दरगाह

पटना, बिहार

देवा शरीफ दरगाह

बाराबंकी, उत्तर प्रदेश

कुतुबउद्दीन बख्तियार काकी दरगाह

महरौली, नई दिल्ली

हजरत बल दरगाह

मुंबई, महाराष्ट्र

गुलबर्गा शरीफ दरगाह

गुलबर्गा, कर्नाटक

निजामुद्दीन औलिया दरगाह

गायसपुर, नई दिल्ली

 चिश्तिया संप्रदाय

चिश्तिया संप्रदाय के संस्थापक के बारे में दो मत हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि उसकी स्थापना ख्वाजा अबू आबदाल चिश्ती ने की थी। परंतु कुछ विद्वानों के अनुसार इसकी स्थापना ख्वाजा अबू इस्हाक सामी ने की थी।

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भारत में चिश्तिया संप्रदाय के संस्थापक ख्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती थे।

ख्वाजा कुतुबउद्दीन-बख्तियार-काकी (1886 – 1236 ईस्वी)

  • जन्म/स्थल : 1186 ईस्वी को फरगना में
  • मृत्यु : 1236 ईस्वी को दिल्ली में
  • खनकाह : दिल्ली
  • प्रमुख शिष्य : शेख बद्दीन गजनवी व शेख फरीद।
  • उपाधि : कुतुब-उल-अकताब, मलिक-उल-मशाईश, रईस-उस-सलीकी , सिरजूल औलिया।
  • समर्थक : सुल्तान इल्तुतमिश के शासन काल में वे भारत आए। इल्तुतमिश इनका बहुत आदर करता था तथा उन्हें शेख-उल-इस्लाम के पद पर शेख नजमुद्दीन सुगरा  को नियुक्त किया गया। नजमुद्दीन सुगरा, कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के प्रति ईर्ष्या रखता था।
  • विशेष: सुल्तान इल्तुतमिश ने दिल्ली की प्रसिद्ध मीनार का नाम कुतुबमीनार इन्हीं के नाम पर रखा था।

 ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती (1143-1236 ईस्वी)

  • जन्म/स्थल : 1143 ईस्वी को अफगानिस्तान के सिस्टान में। 
  • पिता : सैय्यद गियासुद्दीन 
  • मृत्यु : 1236 ईस्वी को राजस्थान अजमेर। 
  • खानकाह : अजमेर (राजस्थान)
  • प्रमुख शिष्य : शेख हमीदउड्डीन नागौरी व कुतुबउद्दीन बख्तियार काकी थे। 
  • विशेष : 1192 ईस्वी में वह मोहम्मद गोरी के साथ भारत आए। कुछ समय के लिए लाहौर में अली बिन उस्मान अल हुजवीरी (दाता गंजबख्श) की खानकाह (धर्मशाला) में रुके। 
  • उसमाल अल हुजवीरी एक प्रसिद्ध सूफी संत थे। उन्होंने सूफीवाद पर कश्क-अल-महजूब नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी। 
  • यहीं पर उन्होंने भारत में चिश्तिया संप्रदाय की स्थापना की थी। अजमेर उस समय पृथ्वीराज चौहान के अधीन था। 
  • दरगाह : उनकी दरगाह अजमेर में स्थित है और ख्वाजा साहब के नाम से प्रसिद्ध है। मुगल सम्राट अकबर ने इस दरगाह की दो बार पैदल यात्रा की थी।  

 

शेख हमीदद्दीन नागौरी

  • जन्म : राजस्थान के नागौर के निकट सुवाक में
  • उपाधि : मुइनूद्दीन चिश्ती ने इन्हें सुल्तान तारिकीन की उपाधि दी थी जिसका अर्थ सन्यासियों का सुल्तान है।
  • गुरु : ये मुइनूद्दीन चिश्ती के शिष्य थे।
  • खानगाह : सुवाल (राजस्थान के नागौर के निकट)

शेख फरीदुद्दीन गंज-ए-शकर (1175-1265 ईस्वी)

  • जन्म/स्थल : 1175 ईस्वी को मुल्तान के कहटवाल में।
  • मृत्यु : 1265 ईस्वी को पाकपाटन, पंजाब में उनकी इच्छानुसार दफनाया गया।
  • खानकाह : अजोधन (पाकिस्तान)
  • उपनाम : फरीद बाबा
  • विवाह : वृद्धावस्था में उन्होंने 3 विवाह किये जिसमें इनकी एक पत्नी बलबन की पुत्री हुसेरा थी। सुल्तान बलबन बाबा फरीद का बहुत सम्मान करता था।
  • समर्थक : सिख धर्म के संसाथपक गुरु नानक भी बाबा फरीद से बहुत प्रभावित थे। इसी कारण गुरु अर्जुन देव ने गुरु ग्रंथ साहब (आदि ग्रंथ) में बाबा फरीद के कथनों को संकलित किया है। बाबा फरीद अपने उपदेशों को संकलित किया है। बाबा फरीद अपने उपदेशों के प्रचार के लिए पंजाबी भाषा का भी प्रयोग किया।
  • शिष्य : शेख निजामुद्दीन औलिया का नाम उल्लेखनीय है जिन्हें बाबा फरीद ने  अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था।
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शेख निजामुद्दीन औलिया

  • जन्म/स्थल : 1236 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के बदायूं में।
  • मृत्यु : 1325 ईस्वी (दिल्ली)
  • माता : बीबी जुलेखा
  • खानकाह : गयासपुर (दिल्ली)
  • शिष्य : अमीर खुसरो, सिराजुद्दीन उस्मानी, शेख बुरहानूद्दीन गरीब, नसीरुद्दीन चिराग-ए-देहलवी।
  • विशेष : भारत में चिश्तिया संप्रदाय का सबसे अधिक प्रचार हुआ।

निजामुद्दीन औलिया एक मात्र चिश्ती संत थे जो अविवाहित थे। शेख निजामुद्दीन औलिया ने 7 सुल्तानों का राज्य देखा था परंतु कभी किसी के दरबार में नहीं गए। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी व जलालुद्दीन खिलजी ने उनसे मिलने का बहुत प्रयास किये परंतु उन्होंने अस्वीकार कर दिया।

जब अलाउद्दीन ने उनसे मिलने की आज्ञा मांगी तो उन्होंने उत्तर दिया कि मेरे मकान में दो दरवाजे हैं यदि सुल्तान एक के द्वारा आएगा तो मैं दूसरे के द्वारा चला जाऊंगा।

गियासुद्दीन तुगलक के निजामुद्दीन औलिया से कटु संबंध थे। इनकी लोकप्रियता से भयभीत होकर उसने औलिया को एक धमकी भरा पत्र भी भिजवाया था जिसके उत्तर में उन्होंने कहा था कि दिल्ली अभी दूर है।

उन्हें महबूब-ए-इलाही (ईश्वर का प्रिय) व सुल्तान-उल-औलिया (संतों का राजा) भी कहा जाता है।

मत : निजामुद्दीन औलिया ने सुलह-ए-कुल का सिद्धांत प्रवर्तित किया था। चिश्ती संत मुक्त रुप से हिंदू और जैन योगियों से मिलते थे एवं विभिन्न विषयों पर विशेष कर योगाभ्यासों पर उनसे बातचीत करते थे। निजामुद्दीन औलिया ने योग प्राणायाम  पद्धति को इस हद तक अपनाया कि लोग उन्हें योगी सिद्ध कह कर पुकारते थे।

औलिया की इच्छा के विरुद्ध मुहम्मद-बिन-तुगलक ने दिल्ली में उनका मकबरा बनवाया था। अमीर खुसरो निजामुद्दीन औलिया का प्रिय शिष्य था। अपने गुरु की मृत्यु  के दूसरे दिन ही उसने अपने भी प्राण त्याग दिये। उसे निदामुद्दीन औलिया के कब्र के पास में ही दफनाया गया।

शेख सिराजुद्दीन उस्मानी

  • उपनाम : अखिसिराज
  • गुरु : निजामुद्दीन औलिया
  • उपाधि/कार्य : निजामुद्दीन औलिया ने उन्हें आईना -ए-हिन्द (भारत दर्पण) की उपाधि प्रदान की थी। उन्हें अखिरसिराज (सिराज भाई) भी कहा जाता था।

इन्होंने बंगाल में अपने गुरु निजामुद्दीन औरलिया के उपदेशों का प्रचार प्रसार किया। सिराज उस्मानी की मृत्यु के बाद शेख अलाउद्दीन अला-उल-मुल्क ने भारत के प्रूवई प्रदेशों में निजामुद्दीन औलिया के उपदेशों का प्रचार किया।

शेख बुरहानुद्दीन

  • संस्थापक : शेख बुरहानुद्दीन गरीब दक्षिण भारत में चिश्तिया संप्रदाय के प्रवर्तक थे।
  • खानकाह : दौलताबाद

विवरण : राजधानी दिल्ली से दौलताबाद परिवर्तन के समय सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने इन्हें दौलताबाद जाने के लिए बाध्य किया। दक्षिण भारत में चिशतिया संप्रदाय की नींव शेख बुरहानुद्दीन ने ही राखी थी। इन्होंने दौलताबाद को अपने शिक्षा का केंद्र बनाया और निजामुद्दीन औलिया के उपदेशों का प्रचार किया। एक अन्य संत हाजी रूमी थे जिनका खानकाह बीजापुर में था।

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